Directed by M. S. Sathyu
Produced by Abu Siwani, Ishan Arya, M. S. Sathyu
Written by Kaifi Azmi, Shama Zaidi
Story by Ismat Chughtai
Starring Balraj Sahni, Farooq Shaikh, Dinanath Zutshi, Badar Begum, Geeta Siddharth, Shaukat Kaifi,
A. K. Hangal
Music by Bahadur Khan
Lyrics Kaifi Azmi
१९४७ का एक दिन. आगरा में. सलीम मिर्ज़ा [बलराज साहनी] आज फिर किसी अपने को पाकिस्तान जाने वाली ट्रेन में बिठा आये हैं. उनके जूते के कारखाने में काम करने वाले उन्ही के कौम के ज्यादातर कारीग़र पहले ही पाकिस्तान जा चुके हैं. स्टेशन से कारखाने आते वक़्त इक्के वाले का बयान भी दिलचस्प है , “सुना है पाकिस्तान में ऊंट गाड़ी चलती है, अब घोड़े की जगह ऊंट हाँकेंगे तो बाप-दादा की रूह तौबा न कर लेगी हमसे”. सभी को लगता है मुसलमान आज नहीं तो कल पाकिस्तान ही जायेंगे। सलीम मिर्ज़ा के मौकापरस्त बड़े भाई भी पहले तो बड़ी शिद्दत से अपने आप को हिंदुस्तान के बचे-खुचे मुसलमानों का सरपरस्त साबित करने में लगे रहे, ये कहते हुए की अब अगर उनके लिए कोई है तो ऊपर खुदा और नीचे वो ख़ुद.…पर अब उन्हें भी पाकिस्तान की ओर रुख करने में हिचक नहीं रही.
१९४७ का एक और दिन. आगरा में ही. बड़े भाई के पाकिस्तान से वापस आने की उम्मीद दम तोड़ चुकी है. आमिना [गीता] अब भी काज़िम से निकाह का ख़ाब आँखों में लिए बैठी है. पुश्तैनी हवेली को कब्ज़े में लेने के लिए सरकारी सम्मन आया है. बूढ़ी दादी को समझ नहीं आता, “मैंने तो दो ही बेटे ज़ने थे, ये मुआ तीसरा हक़दार कौन आ गया?”. हालात की तरह कारखाने की हालत भी माकूल नहीं है. बैंक से लोन लेने में भी कम जहानत नहीं झेलनी पड़ती। मिर्ज़ा सच ही तो कहते हैं, “जो भागे हैं उनकी सज़ा उनको क्यों मिले जो न तो भागे हैं न ही भागना चाहते हैं?”.
१९४७ का एक आम दिन. वहीँ, आगरा में. मिर्ज़ा के बड़े साहेबजादे भी पाकिस्तान जा चुके हैं. छोटे साहबज़ादे [फ़ारूख़ शेख़] बी ए पास करने के बावज़ूद नौकरी के लिए जूते घिस रहे हैं. आमिना के ख़ाब एक बार फिर चकनाचूर हो चुके हैं, इस बार के मुजरिम शमशाद [जलाल आग़ा] हैं. सिन्धी सेठ अजमानी साब [ए के हंगल] भले आदमी हैं पर कारख़ाने को बचाना मुश्किल है. आज एक इक्के वाले ने, हिन्दू होगा शायद, आठ आने की जगह दो रूपये मांगे, हिन्दू मुसलमान की बात कर रहा था. मुंशी जी ने सही सुनाई, “हिन्दू मुसलमान करना है तो इक्का छोड़ो, लीडरी करो”. करें भी क्या? नई-नई आज़ादी है, सब अपने-अपने हिसाब से मतलब निकाल रहे हैं.
१९४७ का एक ख़ास दिन. सलीम मिर्ज़ा टूट चुके हैं. उन्हें एक दफ़ा जासूसी के इलज़ाम में गिरफ्तार भी किया जा चुका है. हालाँकि अदालत ने बरी कर दिया है पर लोगों को कौन समझाए? उन्हें भी लगने लगा है उनकी कौम के लोगों का मुस्तक़बिल पाकिस्तान में ही रौशन है. आज वो खुदी को छोड़ने स्टेशन जा रहे हैं. ये क्या? गली के उस मोड़ पे कैसा जुलूस है ये? क्या फिर कोई दंगे-फसाद की तहरीर लिखने की सस्ती कोशिश में है? नहीं. आज ये भीड़ कौमों की नहीं, काम पाने के हक़ के लिए नारे लगा रही है. नौजवान हाथों में ये इश्तेहार गुजरे कल का नहीं, आने वाली इक नयी सुबह- इक नयी आब-ओ-हवा की इबारत बुलंद कर रहे हैं. मिर्ज़ा खुद ब खुद अपने साहबज़ादे के पीछे पीछे भीड़ का हिस्सा बनने और बनते जा रहे हैं.
इस्मत चुगताई की कहानी पर बनी एम एस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ दस्तावेज है बंटवारे के दर्द की. बलराज साहनी साब की इन्तेहाई संज़ीदा अदाकारी, कैफ़ी आज़मी साब की चुभती-कचोटती-समेटती कलम, उस्ताद बहादुर खान साब की रूहानी मौसिकी और ख़्वाजा सलीम चिश्ती की दरगाह पर फिल्मायी गयी कव्वाली, ‘गर्म हवा’ को कुछ इस तरह आपके सामने परोसती है आप अपने आप को बहुत देर तक फिल्म से अलग नहीं रख पाते. सह-कलाकारों में शौक़त आज़मी, गीता, जलाल आग़ा, फ़ारूख़ शेख़ और ए के हंगल साब बेहतरीन हैं. ईशान आर्या साब का कैमरा एक पल को भी आपको आगरे से दूर नहीं ले जाता पर उस दौरान, पूरे हिन्दुस्तान के हाल और हालात बखूबी बयान कर देता है. ज़रूर देखिये, सिनेमाघरों में! ऐसे मौके बहुत कम ही दुबारा आते हैं, ऐसी फिल्में भी!!
Review Written By:- Gaurav Rai