गीत – ये हवा ये रात ये चाँदनी
तेरी इक अदा पे निसार है
फ़िल्म – संगदिल (1952)
संगीतकार – सज्जाद हुसैन
गीतकार – राजेन्द्र कृष्ण
गायक – तलत महमूद

सज्जाद हुसैन सिने संगीत जगत के सबसे अधिक प्रतिभासम्पन्न संगीतकारों में एक थे। उनकी कला का लोहा उनके समकालिक अन्य संगीतकार भी मानते थे। अनिल विश्वास का कहना था कि सज्जाद फ़िल्मी दुनिया के एकमात्र मौलिक संगीतकार थे । उन्होंने कभी किसी की नक़ल नहीं की या कभी किसी अन्य संगीतकार से प्रभावित नहीं हुये। वे एक अत्यन्त निपुण मैण्डोलिन वादक थे। मैंण्डोलिन को शास्त्रीय वाद्यों में स्थान दिलाने में उनका सबसे बड़ा योगदान रहा। साथ साथ वे वीणा, वायलिन, बाँसुरी, प्यानो आदि भी कुशलता से बजा लेते थे। संगीत जगत में वे एकमात्र ऐसे संगीतकार थे जिनका कोई असिस्टेण्ट या म्यूज़िक अरेंजर नहीं था। इतने गुणी होने पर भी उन्हें ज़्यादा फ़िल्में नहीं मिलीं। सबसे बड़ा कारण उनका परम स्वाभिमानी होना था।

वे समझौतावादी क़तई नहीं थे। अपने संगीत की गुणवत्ता पर उन्हें घमण्ड था। साथ ही वे तेज़ स्वभाव के बल्कि कहना चाहिये ग़ुस्सैल थे। उनके मुँहफट होने के कई क़िस्से मशहूर हैं। पता नहीं उनमें से कितने सच और कितने मनगढ़ंत है। जैसे – वे किशोर कुमार को ‘शोर कुमार‘ और तलत महमूद को ‘ग़लत महमूद‘ कहते थे। लता मंगेशकर ने नसरीन मुन्नी कबीर को एक इंटरव्यू में बताया था,’सज्जाद साहब के गीत गाने के पहले मैं सदा सावधान और सहमी रहती थी कि पता नहीं उन्हें पसंद आयेगा या नहीं? मैं सही गा रही हूँ या नहीं?

कहते हैं एक बार उन्होंने लता मंगेशकर से कहा था,’ ये नौशाद मियाँ का गाना नहीं है। आपको मेहनत करनी पड़ेगी।’ एक अफ़वाह तो यह भी रही कि उन्होंने अपने कुत्ते का नाम नौशाद रख छोड़ा था। इन सब कारणों से उनके लगभग 19 वर्ष के कैरियर में केवल 18 फ़िल्में रहीं। पर क्या ग़ज़ब के गीत उन्होंने दिये – बदनाम मोहब्बत कौन करे (दोस्त), ग़मे आशियाना सतायेगा कब तक और तेरी नज़र में मैं रहूँ (दोनों ग़द्दार 1857), दिल में समा गये सजन (संगदिल), हवा में दिल डोले और ख़यालों में हो तुम (दोनों सैयां), भूल जा अय दिल मोहब्बत का फसाना (हलचल), ये चार दिन बहार के (रुख़साना), ये कैसी अजब दास्ताँ हो गयी है और अय दिलरुबा नज़रें मिला (रुस्तम सोहराब) आदि। उन्हें अपने काम में किसी का दखल पसंद नहीं था।

आर सी तलवार एक अकेले ऐसे निर्माता निर्देशक थे जिन्होंने ‘संगदिल’ के बाद ‘रुख़साना‘ में उन्हें दोहराया। वरना बाक़ी सब तो एक फ़िल्म के बाद तौबा कर लेते थे। ‘हलचल’ के निर्माण के दौरान उन्होंने के आसिफ़ से लड़ाई कर बीच में फ़िल्म छोड़ दी। अगर वे ज़रा भी समझौता करते तो ‘मुग़ले आज़म‘ के संगीतकार होते। उन्हें पैसों की परवाह कभी नहीं रही। अपनी शर्तों पर उन्होंने अपना जीवन जिया। उनकी इच्छा केवल महान संगीतकार कहलाने की थी जो अवश्य पूरी हुई। आज सब उन्हें एक महान संगीतकार के रूप में याद करते हैं।

फ़िल्म ‘संगदिल‘(1952, दिलीप कुमार, मधुबाला) में सज्जाद साहब ने एक गीत बनाया था – ‘ये हवा ये रात ये चाँदनी, तेरी इक अदा पे निसार है’ (तलत महमूद) जो बेहद मशहूर हुआ। कुछ ऐसा संयोग हुआ कि फ़िल्म ‘आख़री दाव‘ (1958, शेखर, नूतन) में मदन मोहन के बनाये गीत -‘तुझे क्या सुनाऊं मैं दिलरुबा, तेरे सामने मेरा हाल है’ (मोहम्मद रफ़ी) की धुन उनके गीत से मिलती जुलती थी। इस बात की उन्हें बड़ी नाराज़गी रही। एक संगीत सभा में जब मदन मोहन उनके पास से गुज़रे तो उन्होंने सबको सुनाते हुये ज़ोरों से कहा,’अब तो हमारा साया भी चलने लगा है।’

साभार:- श्री रवींद्रनाथ श्रीवास्तव जी।

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