प्यार का कोई दौर नहीं होता। प्यार हर दौर में बस प्यार ही होता है। सादा, सीधा, सच्चा….शायद इसीलिए प्यार का कोई माकूल अंजाम भी नहीं होता! आप पैदा होते हैं, बड़े होते हैं, ज़िंदगी को जानने-समझने में लगे रहते हैं और फिर एक दिन आप का वजूद मुट्ठी की रेत की तरह फिसल जाता है, पर प्यार वहीँ कहीं रहता है। तब भी था, अब भी है, तब भी रहेगा…और प्यार की कहानियां भी, कुछ बिलकुल ऐसी ही! एकदम ताज़ी, जिन पर वक़्त की कोई धूल नहीं, जिन पर दौर की कोई मुहर नहीं।

कुल मिलाकर 14 साल का था, जब आदित्य चोपड़ा की ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ का पहले दिन-पहला शो देखा था! तब भले ही इत्तेफ़ाक़ लगता रहा हो, अब नहीं लगता। गोरखपुर से कुछ 100 किलोमीटर दूर एक छोटे से गाँव से यमुना पार दिल्ली के राधू पैलेस तक का सफर जैसे सिर्फ इसी इक तिलिस्म के इर्द-गिर्द पहुँचने की साज़िश थी। हालात बदल रहे थे। अप्रवासी भारतीयों की कौम पहचान बना भी रही थी और ढूंढ भी रही थी। हालांकि ऊल-जलूल की भौंडी कॉमेडी [राजा बाबू, कुली न. 1], मार-धाड़ से भरपूर सस्ते मनोरंजन [मोहरा, मैं खिलाडी तू अनाड़ी, विजयपथ] के बीच एक महान पारिवारिक फिल्म [हम आपके हैं कौन.!]का जादू अभी उतरा नहीं था, पर इस दौर को एक नए ज़मीन की दरकार थी! ऐसी ज़मीन जिसकी हवाओं में नए ज़माने की महक भी हो और जिसकी मिट्टी में हिंदुस्तानी तहज़ीब और तमीज का सोंधापन भी।

सालों से लन्दन में रहने वाले चौधरी बलदेव सिंह [अमरीश पुरी] का दिल अब भी पंजाब में ही बसता है! ये उन चंद कबूतरों में से हैं जो दाने की तलाश में दूर निकल आये हैं, ‘ज़रूरतों ने जिनके पर काट दिए हैं, रोटी पाँव की ज़ंजीर बन गयी है’, पर वापस अपने मुल्क जाने की आस अभी छूटी नहीं है, अभी टूटी नहीं है। अपनी लाजो जी [फरीदा जलाल] और दो बेटियों, राजेश्वरी यानी छुटकी [पूजा रूपारेल] और सिमरन [काजोल] के साथ, चौधरी साब ने लन्दन में ही पंजाब को ज़िंदा रखा है। ऐसे ही एक ज़िंदादिल हिंदुस्तानी हैं धरमवीर मल्होत्रा [अनुपम खेर], जो अपने हिस्से की जवानी अपने बेटे राज [शाहरुख खान] की मस्ती भरी शरारतों में जी रहे हैं।

फिल्मों में, खासकर हिंदी फिल्मों में हीरो-हीरोइन का मिलना अक्सर गैर-इरादतन इत्तेफ़ाक़ ही होता है। यहाँ भी सूरत-ए-हाल कुछ ख़ास, कुछ अलग नहीं है। सिमरन की शादी पंजाब के किसी हट्टे-कट्टे गबरू जवान से तय हो चुकी है, जबकि वो उसे जानती तक नहीं! ऐसे में दोस्तों के साथ एक महीने की यूरोप-ट्रिप, सिमरन के लिये एक आख़री मौका है अपनी सारी ज़िंदगी जी लेने का! मस्तमौला, बदतमीज़ और आवारा राज भी इसी ट्रिप का एक हिस्सा है। छोटी-छोटी ढेर सारी नोक-झोंक और एक-दूसरे को काफ़ी हद तक जानने के बाद दोनों एक-दूसरे से अलग हो रहे हैं, पर दोनों के दिलों में कहीं न कहीं, कुछ न कुछ जुड़ रहा है। सिमरन के ख़्वाबों में आने वाले अनदेखे-अनजाने चेहरे को एक शकल मिल रही है, और मस्तमौला राज आज बड़ी संजीदगी से बैठा चाँद निहार रहा है।

इश्क़ में बग़ावत करने और दुनिया जला देने का दावा पेश करने वाले आशिक़ों को बड़ी कोफ़्त हुई होगी, जब राज सिमरन को भागने से मना कर देता है, “अब मैं तुम्हें तभी यहां से ले जाऊंगा, जब बाबूजी खुद तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में देंगे”. गौर फरमाईये, ये वही राज है जो अपनी मौज-मस्तियों के लिए अब तक बड़ी बेपरवाही से लोगों के दिल तोड़ता आया है! इस राज की एक झलक यूरोप-ट्रिप पे भी देखने को मिली थी, जब उसके एक भद्दे मज़ाक से परेशान सिमरन को राज बड़ी शिद्दत और फ़क्र से समझाता है कि वो एक हिंदुस्तानी है और एक हिंदुस्तानी औरत की इज़्ज़त क्या होती है? अच्छी तरह जानता है। सिर्फ हिंदुस्तानी औरत की? क्या फ़र्क पड़ता है, शुरुआत कहीं से तो होनी चाहिए।

हालांकि ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ को एक पूरी तरह आज़ाद ख्याल फिल्म नहीं कहा जा सकता। मसलन, फिल्म में औरतें के किरदार अभी भी बंधे-बंधे नज़र आते हैं। सिमरन बड़ी आसानी से समझौते करने को तैयार है, उसकी आज़ादी अभी भी मर्द के हाथों कैद है तब तक, जब तक ‘जा सिमरन, जा.…अपनी ज़िंदगी जी ले’ का फरमान न मिल जाए! पर फिर भी, कई मायनों में ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ लकीर का फ़कीर बनने से इंकार करती नज़र आती है। विदेशों में बसने और दिलों में देश बसाये घूमने वाले नौजवानों की कहानी यहां रूकती नहीं, यहाँ से शुरू होती है। ‘जब प्यार किसी से होता है’ और ‘परदेस’ जैसों की नींव देखिये, जानी-पहचानी लगेगी। फिल्म का अंत भले ही नाटकीय लगे, आज तक बेझिझक दोहराया जा रहा है। बस, पंजाब का वो छोटा सा रेलवे स्टेशन अब बड़े शहरों का एयरपोर्ट बन गया है! करवा-चौथ को पंजाब-दिल्ली से बाहर ले जाने और करन जौहर की फिल्मों में एक जरूरी हिस्सा बनाने का श्रेय भी इसी को जाता है!

बहरहाल, रिलीज़ हुए 1000 हफ्ते हो चुके हैं और ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ मराठा मंदिर, मुंबई और अपने करोड़ों चाहने वालों के दिलों में अभी भी शान से चल रही है! जतिन-ललित का संगीत-आनंद बक्शी के गीत अभी पुराने नहीं हुए हैं। सिनेमा का बड़ा पर्दा हो या आपके ड्राइंग रूम का टीवी स्क्रीन, ‘सेनोरिटा, बड़े-बड़े देशों में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं’, ‘बाबूजी ठीक कहते हैं मैं आवारा हूँ, तो क्या हुआ अगर ये आवारा तुम्हें दीवानों की तरह प्यार करता है’ और सिमरन की शायरी, “ऐसा पहली बार हुआ है सत्रह-अठरह सालों में, अनदेखा अंजाना कोई आने लगा ख्यालों में” सुनना और साथ-साथ दोहराना आज भी बदस्तूर जारी है।

1995 में ‘साल की सबसे मनोरंजक फिल्म’ का राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ इश्क़ की तरह ही है, जितना पुराना उतना ही गहरा, उतना ही जादुई! धरमवीर मल्होत्रा के किरदार में अनुपम खेर साब एक सीन में कहते हैं, “मुहब्बत का नाम आज भी मुहब्बत ही है”….और जब तक, मुहब्बत का नाम मुहब्बत रहेगा, ”दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ का जादू कहीं न कहीं किसी कोने में ज़िंदा रहेगा! 

‎#1000weeksOfDDLJ‬

Written By- Gaurav Rai 

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