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5 साल का बुधिया 70 किलोमीटर के मैराथन दौड़ में 40-45 किलोमीटर पार कर आया है. उसे प्यास लग रही है. साथ-साथ साइकिल पर चल रहे अपने ‘कोच सर’ को इशारा कर रहा है. कोच सर उसे पानी तक पहुँचने भी नहीं दे रहे. आपका दिल बैठा जा रहा है. आपके मन में कोच सर के लिए बेदिली बढ़ती जा रही है, पर कोच सर के माथे पर कोई शिकन नहीं. क्योंकि उन्हें बुधिया की प्यास से ज्यादा फ़िक्र है बुधिया के भूख की. भूख दौड़ने की. भूख गरीबी, मुफलिसी और मायूसी के दलदल से निकल कर अपनी पहचान कायम करने की. भूख एक जोड़ी जूतों और एक लाल रंग के साइकिल की.
यूँ तो कहने को खेल और खिलाड़ियों की ज़िन्दगी पर बनी दर्जनों हिंदी फिल्में आपके जेहन में घूम रही होंगी, पर सोमेन्द्र पधि की ‘बुधिया सिंह- बॉर्न टू रन’ बिना किसी शक अब तक की सबसे अच्छी ‘स्पोर्ट्स फिल्म’ मानी जानी चाहिए. हालाँकि इस फिल्म में ‘आगे क्या होगा’ वाला रोमांच कम है, मैच के आख़िरी पलों में गोल दाग कर या छक्का मार कर टीम जिताने वाला हीरो भी कोई नहीं है, और ना ही फिल्म की सफलता के लिए ‘देशभक्ति’ का बनावटी छौंका लगाकर आपके अन्दर के ‘भारतीय’ को जबरदस्ती का झकझोरने की कोशिश. ‘बुधिया सिंह- बॉर्न टू रन’ फार्मूले से अलग एक ऐसी ‘स्पोर्ट्स’ फिल्म है, जो सिर्फ सतही तौर पर खेल से जुड़े रोमांच को भुनाने की कोशिश नहीं करती, बल्कि उसके पीछे की मेहनत-मशक्कत, लगन और मुश्किलातों को सच्चे मायनों में आपके सामने उसकी असली ही शकल-ओ-सूरत में पेश करती है.
जूडो कोच बिरंची दास [मनोज बाजपेयी] झुग्गी-झोपड़ियों के गरीब अनाथ बच्चों को अपने ही घर पर रख कर उन्हें जूडो सिखाते हैं. 850 रूपये में एक नशेडी को बेचे गए बुधिया [मयूर महेंद्र पटोले] के लिए भी बिरंची दास एक भले मददगार की तरह ही सामने आते हैं, पर बुधिया के लिए उनके पास कोई अलग, कोई ख़ास प्लान नहीं है. ऐसे में एक दिन, दौड़ने के लिए उसका जूनून देखकर दास को जैसे न सिर्फ उसकी बल्कि अपनी भी ज़िन्दगी का मकसद साफ़ दिखाई देने लगता है. बुधिया दौड़ेगा, और सिर्फ दौड़ेगा. मैराथन दौड़ेगा, ओलंपिक्स में दौड़ेगा, बस दौड़ेगा. मासूम बुधिया की ललक और जज्बाती बिरंची दास की सनक साथ मिलकर पूरे देश के खिलाडियों के लिए मिसालें कायम कर रही है, कि अचानक शुरू होता है राजनीतिक सत्ता और बेरहम सिस्टम का सर्कस!
सोमेन्द्र पधि की ‘बुधिया सिंह- बॉर्न टू रन’ आपका दिल चीर के रख देगी, जब आप सिस्टम को बुधिया और उसके सपनों के बीच खड़ा पायेंगे. बाल कल्याण समिति की खोखली दिलचस्पी से खिन्न, बेबाक बिरंची एक जगह बोल भी पड़ते हैं, “ओड़िसा में हर दिन एक बच्चा भूख से मर रहा है. भूख से मरने से तो अच्छा है दौड़ कर मरे!”. बुधिया सिंह के दौड़ने पर बैन लगा दिया जाता है, और आज 10 साल बाद भी उसके ओलंपिक्स में दौड़ने के सपने को भारत सरकार ने जंजीरों से बाँध रखा है. अफ़सोस, आज कोई बिरंची दास उसके साथ, उसके पास नहीं है!
बेहतरीन डायरेक्शन, सिनेमेटोग्राफी, एडिटिंग और म्यूजिक के बीच, फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष उभर कर आता है उसके किरदारों में बखूबी ढलते कलाकार. मनोज बाजपेयी ने तो मानो एक अलग ही मुहीम छेड़ रखी है. एक वक़्त था, जब अर्थपूर्ण फिल्मों को ‘पैरेलल सिनेमा’ का नाम दिया जाता था, मनोज जिस तरह की फिल्मों [अलीगढ, ट्रैफिक और अब ‘बुधिया सिंह- बॉर्न टू रन’] को अपना नाम दे रहे हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि अगर हिंदी सिनेमा के लिए नहीं, तो कम से कम अपने लिए ही सही वो एक ऐसे ही ‘पैरेलल मूवमेंट’ ही शुरुआत कर चुके हैं. उनके बिरंची में आपको सामान्य कुछ भी नहीं दिखता. ये वो गुरु नहीं है, जिसके लिए हर वक़्त आप नतमस्तक दिखें. उसकी नीयत पर भले ही आपको कोई शक-ओ-शुबहा न हो, उसे रूखे रवैये और तीखे तरीके आपको ज़रूर विचलित कर देंगे. बुधिया के किरदार में मयूर महेंद्र पटोले का चयन एकदम सटीक है. ‘हगा और भगा’ जैसे मासूम पलों में वो और भी कामयाब दिखते हैं.
अंत में; एनडीटीवी के हालिया इंटरव्यू में 15 साल के बुधिया को सुनते-देखते एक बात का एहसास बहुत दुःख के साथ होता है कि कैसे हमने, हमारी निकम्मी व्यवस्था, हमारी नौकरशाही ने एक प्रतिभा को पंगु बना रख छोड़ा है, कैसे एक जोशीले, ज़हीन और ज़ज्बाती इंसान के सपने को खंजर बना कर हमने उसी के सीने में उतार दिया. ‘बुधिया सिंह- बॉर्न टू रन’ एक टीस की तरह आपके दिल में काफी वक़्त तक दबी रह जायेगी.
Written By: Gaurav Rai
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