‘अर्ध सत्य’ देखी है आपने? ओम पुरी के प्रशंसक है तो ज़रूर देखी होगी। इस फ़िल्म की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है। ओम पूरी को अभिनय करता देख आप भूल जाएंगे की ये ओम पुरी है। वे धीरे – धीरे अपने किरदार में ऐसे उतर जाते है की पता ही नहीं लगता की कब वो गायब हो गए और परदे पे रह गया तो सिर्फ अनंत वेलंकार। एक पुलिस ऑफिसर जो सिस्टम में चल रहे गलत के खिलाफ आवाज़ उठा रहा है।
मगर ‘अर्ध सत्य’ सिर्फ इस एक कहानी का ज़िक्र नहीं करती। वह यह भी चाहती है की आप उस कहानी को समझे और महसूस करे जो अनंत वेलंकार के चहरे पर चल रही होती है।
अनंत वेलंकार – एक ऐसा आदमी जो अपने स्वाभिमान, नैतिकता और नौकरी के बीच फंसा हुआ है। गोविन्द निहलानी के कहानी कहने का जरिया कहानी के किरदार होते है। जितने किरदार, उतनी कहानिया। इसी तरह से ना जाने कितनी कहानियाँ उनका सिनेमा बयां कर देता है।
स्मिता पाटिल के किरदार को ही देखिये। ज्योत्स्ना हर वक्त एक अजीब से असमंजस में रहती है। वो अनंत से प्यार करती भी है या नहीं? अगर करती है तो क्या उसके साथ सारी ज़िन्दगी गुज़र कर पाएगी? क्या उसका और अनंत का मेल संभव भी है या नहीं? मगर ज्योत्स्ना मजबूत है। वह रह-रह कर अपने आप को संभालती है। उसे पता है की वह एक स्त्री है। चाहे क्यों ना वो नौकरी कर रही हो, घर चला रही हो। उसे इस समाज से सम्पूर्णतः इज़्ज़त तब ही मिलेगी जब उसका घर बस जाये। लेकिन फिर भी वह जल्दबाज़ी नहीं करना चाहती। अंदर से कितनी ही अस्थिर क्यों न हो। बाहर से स्थिर है।
और अनंत? बाहर और भीतर, दोनों जगहों से अस्थिर। वह समाज से भ्रष्टाचार और जुर्म मिटा देना चाहता है। वह बार – बार माइक लोबो (जिसे नसीरुदीन शाह साहब ने बखूबी निभाया है) को देखता है और सहम के रह जाता है। अगर ईमानदारी और नैतिकता की राह पर चला तो कही उसकी हालात भी माइक लोबो जैसी न हो जाए जिसे ईमानदारी से नौकरी करने की सजा कुछ यूं मिली की अब वह सड़क किनारे शराब पिए हुए पड़ा रहता है।
‘अर्ध सत्य’ आज के परिपेक्ष्य में भी एक महत्त्वपूर्ण फ़िल्म है। कानून, अदलात, सरकार, सभी एक जंजाल की तरह हमारे सामने है। क्या सही है, क्या गलत है, इसका फैसला करना आज और ज़्यादा मुश्किल है। इसे आप चाहे अपनी ज़िन्दगी से जोड़ के देखे या समाज में हो रहे बदलाव से। किसी भी चीज़ की पूरी तस्वीर आपको नहीं मिलेगी।
अनंत हमे बताता है की इंसान कभी एक डगर पे नहीं रहता। उसके अंदर एक समंदर है। और समंदर मे हलचल होती रहती है। पता नहीं कितना कुछ प्राप्त कर लेना चाहता है वो।
अनंत हम ही में से एक है जिसे सामाजिक प्रतिष्ठा, प्यार और प्रसंशा की ललक है। वह इस देश के पुलिसकर्मि का एक शुद्ध उदहारण है। एक ऐसा पुलिस वाला जिसने अभी – अभी पुलिस की नौकरी शुरू की है। उसमे उमंग है। जोश है। कुछ कर देना चाहता है वो। ऐसा अक्सर होता होगा जब एक नया पुलिस वाला फ़ोर्स में शामिल होता होगा। लेकिन या तो फिर वह समय के साथ समझौता कर हैदर अली जैसा पुलिस वाला बन जाता है जिसके लिए पुलिस की नौकरी सिर्फ ड्यूटी है। या तो फिर वो माइक लोबो बन जाता है। अनंत इन दोनों के बीच में रहता है। और अंत में जाकर एक तीसरा रास्ता चुनता है। इस तीसरे रास्ते का पूरा सच गोंविंद निहलानी नहीं बताते। शायद ठीक ही करते है।
अनंत जो करता है वो सही है या गलत, ये बहस का विषय हो सकता है। मगर इस बात में कोई दोराय नहीं की अब वह झुकना नहीं चाहता। अनंत हमे बताता है की लड़ना ज़रूरी है। दुनिया से बाद में, पहले अपने आप से। लड़ाई कठिन हालातो से। यदि हैदर अली जैसे पुलिस वाले है तो वह इसलिए क्योंकि वे हालातो से समझौता कर चुके है। माइक लोबो जैसे पुलिस वाले चाहे कितने ही ईमानदार क्यों ना रहा हो, अब वह हार चुका है। ये लोग लड़ना नहीं जानते। या फिर लड़ना नहीं चाहते।
अनंत को मगर समझौता पसंद नहीं। पहले ही वह बहुत से समझौते कर चुका है। जिस परिवार से वह आता है, उन परिवारो के लोगो को समझौतो की आदत होती है। क्योंकि पिता पुलिस में रहा है, उसे भी पुलिसवाला बनना होगा चाहे उसकी रूचि साहित्य में ही क्यों न हो। और अब जब पुलिस वाला है तो चुपचाप नौकरी करने का समझौता। न जाने कितने ही ऐसे छोटे-बड़े समझौते उसकी ज़िन्दगी में चलते ही रहे।
अनंत अंत में ऊब चुका था। उसने वो किया जो उसे सही लगा। अनंत हमे बताता है की लाचारी से अच्छा होता है संघर्ष। संघर्ष जो अनंत होती है।
आज के समय में अनंत को ढूंढना शायद बहुत मुश्किल है। आज हमारा समाज क्या अनंत को ढूंढना चाहता भी है। जवाब ढूंढने निकलेंगे तो मिल भी जाएंगे आपको। जिस अनंत को कुछ साल पहले गोविन्द निहलानी ने रचा था वह सिर्फ कल्पना की रचना नहीं थी। कितने ही अनंत उस वक्त भी मौजूद थे। कितने ही अनंत आज भी मौजूद है। पता नहीं कितने ही पुलिस ऑफिसर्स आज इस बीमार व्यवस्था, अत्याचार, शोषण के खिलाफ लड़ रहे है। जाने कितने ही लड़ कर थक गए और हाशिये पर धकेल दिए गए।
इतने सालों बाद भी ‘अर्ध सत्य’ बहुत मायने रखती है । इसलिए क्योंकि इस विषय पर कभी इतनी मजबूत फ़िल्म नहीं बनी और इसलिए भी क्योंकि आज कोई बनाने वाला है ही नहीं।