वक़्त, सफ़र की तरह मसलसल, सब्र, इंतज़ार की तरह ख़ामोश और शोहरत, क़िस्मत की तरह नामालूम| कभी- कभी यही नसीब होता है फ़नकार का| हिन्दी फ़िल्मों में 50 और 60 के दशक में अपने शानदार मौसिक़ी से नौशाद साहब , सचिन देव बर्मन और महन मोहन जैसे अज़ीम शख़्सियतों ने एक गहरी छाप छोड़ी थी|

नौशाद साहब, जहां शास्त्रीय संगीत के रागों को फ़िल्मी नग़मों की सूरत में घर-घर पहुंचा रहे थे, वहीं सचिन देव बर्मन, लोक-संगीत को मशहूर कर रहे थे| मो० रफ़ी और लता मंगेशकर सरीखे बेहतरीन फ़नकारों के साथ, मदन मोहन भी फ़िल्मों में पुरकशिश गाने बना रहे थे| इन सबका असर इतना ज़्यादा था कि 70 के दशक तक, इनके सुरों के तिलिस्म से कोई भी आज़ाद नहीं हो पाया था|

70 का दशक मिले जुले तरीक़े के गानों के साथ बढ़ता रहा और 80 का दशक आते आते वो दौर भी आया जब ग़ज़लों के अलावा फ़ुर्सत भरी गायकी, लगभग न के बराबर रह गई और शास्त्रीय रागों का इस्तेमाल भी रुक सा गया| ये दौर बप्पी लाहिरी जैसे संगीतकारों का था, जहां बदलता हुआ माहौल तेज़ी की मांग कर रहा था| लेकिन सई परांजपे और ताराचंद बड़जात्या जैसे निर्माता, मिडिल क्लास और गांव की ज़िंदगी से जुड़ी फ़िल्में बना रहे थे, जिनकी कहानियों के हिसाब से, न तो दरबारों में गूंजने वाले ख़ालिस राग चाहिए थे, न होटलों में बजने वाले तेज़ गाने और न शायर मिज़ाज नौनिहालों के कमरे से आती ग़ज़लें| यही मुफ़ीद वक़्त और माहौल था ज़िंदगी से जुड़ी और उसे महसूस कराती धुनों के लिए और राजकमल जी जैसे संगीतकारों के लिए|

राजकमल जी ने वैसे तो राजस्थान से बंबई (अब मुंबई) आने के कुछ ही दिनों बाद, 1970 में, काम करना शुरू कर दिया था लेकिन एक साल के इंतज़ार के बाद,1971 में उन्हें एक फ़िल्म मिली, “दोस्त और दुश्मन”, जिसमें कोई भी बड़ा अदाकार नहीं था, हालांकि, रेखा उस फ़िल्म में थीं, पर उस वक़्त, वो भी बड़ा नाम न थीं| इसमें राजकमल जी को बहुत क़ामयाबी नहीं मिली|

बीच-बीच में उन्हें मामूली से काम मिलते रहे, लेकिन एक लम्बे इंतज़ार के बाद 1976 में आई, ताराचंद बड़जात्या निर्मित “सावन को आने दो”, जिसमें येसुदास और जसपाल सिंह की सादगी और रूहानियत से भरी आवाज़ों ने, राजकमल जी की धुनों को हर घर तक पहुंचाया और इन गानों की मिठास आज भी एक माहौल पैदा कर सकने का असर रखती है| येसुदास की आवाज़ में, “चांद जैसे मुखड़े पे बिंदिया सितारा” और जसपाल सिंह की आवाज़ में, “सावन को आने दो”, कोई कभी नहीं भूल सकता|

80 के दशक के शुरूआती सालों में, सई परांजपे, लाइट कॉमेडी फ़िल्में बना रही थीं, जिनमें सबसे ज़्यादा मशहूर रहीं, 1981 में आई, “चश्म-ए-बद्दूर” और 1983 में आई “कथा”| इन दोनों फ़िल्मों में फ़ारूक़ शेख़, दीप्ति नवल, राकेश बेदी, नसीरुद्दीन शाह, सईद जाफ़री और कई दूसरे शानदार अदाकारों ने काम किया| इन दोनों फ़िल्मों का संगीत, #राजकमल जी ने ही दिया था| “चश्म-ए-बद्दूर” के गाने ,ख़ासकर “कहां से आए बदरा” और “काली घोड़ी द्वार खड़ी”, बहुत मशहूर हुए और बीते दिनों के शास्त्रीय अंदाज़ को फिर से क़ायम करने की कोशिश की|

इसके बाद किसी बहुत मशहूर फ़िल्म में इनकी मौसिक़ी, सुनने को नहीं मिली, लेकिन ये लगातार काम करते रहें| 1984 में, एक मलयालम फ़िल्म “आझी” में भी इन्होंने संगीत दिया|

1988 में बी०आर० चोपड़ा की “महाभारत”, दूरदर्शन पर आई और एक बार फिर से #राजकमल जी के बनाए धुनों पर “अथ श्री महाभारत कथा”, जब महेंद्र कपूर की आवाज़ में सुनाई देता था, पूरा हिंदुस्तान उसे ध्यान से सुनता था| इस धारावाहिक का पूरा संगीत, इन्होंने ने ही दिया था|

इन्होंने फ़िल्में बनाने की भी कोशिशें की और 2001 में इनकी एक फ़िल्म, “ज़ख़्मी हसीना”, आई भी, लेकिन क़ामयाब न हो सकी| 2005 में, इन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया|

राजकमल जी ने पूरा वक़्त दिया, अपने शौक़ को, बहुत सब्र रखा एक बेहतर कल के इंतज़ार में और शोहरत भी उनसे पूरी वफ़ादारी न रख सकी|

शायद ऐसे ही फ़नकारों के अहसासों के शिद्दत और उनकी हसरतों को महसूस कर के मोमिन ने बहुत पहले ही कह दिया था ज़माने से, अपने हमअसरों से, आने वाली नस्लों से,
“तुम हमारे किसी तरह न हुए
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता|”

© विमलेन्दु

लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.

फ़ोटो: साभार Google

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