Rating 3/5
Directed by Anu Menon
Produced by Priti Gupta, Manish Mundra
Written by Atika Chohan (Dialogues)
Screenplay by Anu Menon, James Ruzicka, Atika Chohan
Starring Naseeruddin Shah, Kalki Koechlin, Rajat Kapoor
Music by Mikey McCleary
Cinematography Neha Parti Matiyani
Edited by Nitin Baid, Apurva Asrani
Production Company Ishka Films, Drishyam Films
Release dates 11 December 2015(Dubai International Film Festival), 27 May 2016 (India)
अस्पताल के ‘वेटिंग रूम’ में खाली कैनवस जैसी बेदाग़-बेरंग दीवार पे टंगी घड़ी में सिर्फ छोटी-बड़ी दो सुईयां ही नज़र आ रही हैं. सही, सटीक और तय वक़्त जानने के लिए घंटों की गिनती और उनके बीच के मिनटों के फ़ासले जैसे किसी ने रबर से मिटा दिए हों. यहाँ इनकी कोई ख़ास जरूरत भी नहीं है. जब इंतज़ार का रास्ता लम्बा हो तो घंटे-मिनट-सेकंड वाले छोटे-छोटे मील के पत्थरों को नज़रअंदाज़ करना ही पड़ता है. कुछ ने इस फ़लसफ़े को अच्छी तरह समझ लिया है, जैसे प्रोफेसर शिव नटराज [नसीर साब] जिनकी पत्नी पिछले आठ महीनों से कोमा में हैं. तारा देशपांडे [कल्की] के लिए अभी थोड़ा मुश्किल है. शादी को अभी 6 महीने ही हुए थे और आज तारा का पति [अर्जुन माथुर] एक रोड-एक्सीडेंट के चलते आईसीयू में भर्ती है. दुःख को झेलने-सहने और समझने के अलग-अलग पड़ाव होते हैं, प्रोफेसर अगर आख़िरी पड़ाव पर हैं तो तारा के लिए अभी शुरुआत ही है.
अनु मेनन की ‘वेटिंग’ ज़िन्दगी और मौत के बीच के खालीपन से जूझते दो ऐसे अनजान लोगों के इर्द-गिर्द घूमती है जिनमें कहने-सुनने-देखने में कुछ भी एक जैसा नहीं है, पर एक पीड़ा, एक व्यथा, एक दुविधा है जो दोनों को एक दूसरे से बांधे रखती है. प्रोफ़ेसर शिव धीर-गंभीर और शांत हैं, जबकि तारा अपनी झुंझलाहट-अपना गुस्सा दिखाने में कोई शर्म-लिहाज़ नहीं रखती. तारा को मलाल है कि ट्विटर पर उसके पांच हज़ार फ़ॉलोवर्स में से आज उसके पास-उसके साथ कोई भी नहीं, जबकि प्रोफ़ेसर को अंदाज़ा ही नहीं ट्विटर क्या बला है? इसके बावज़ूद, अपने अपनों को खो देने का डर कहिये या फिर वापस पा लेने की उम्मीद, दोनों एक-दूसरे से न सिर्फ जुड़े रहते हैं, अपना असर भी एक-दूसरे पर छोड़ने लगे हैं. ‘नम्यो हो रेंगे क्यों’ का जाप करने वाली तारा कभी खुद को नास्तिक कहलाना पसंद करती थी, कौन मानेगा? वहीँ प्रोफ़ेसर को आज ‘एफ़-वर्ड’ कहने में भी कोई दिक्कत पेश नहीं आती.
‘वेटिंग’ बड़ी ईमानदारी से और बहुत ही इमोशनल तरीके से इन दो किरदारों के साथ आपको ज़िन्दगी के बहुत करीब लेकर जाती है. हालाँकि अस्पताल जैसा नीरस-उदास और बेबस माहौल हो तो फिल्म के भी उसी सांचे में ढल जाने का डर हमेशा बना रहता है, पर अतिका चौहान के मजेदार संवाद हमेशा इस नीरसता को तोड़ने में कामयाब रहते हैं. फिल्म जहां एक तरफ बड़ी संजीदगी से आपको लगातार ज़िन्दगी और मौत से जुड़े कुछ अहम् सवालों के आस-पास खींचती रहती है, दूसरी ओर वो इस कोशिश में भी लगी रहती है कि आपका दिल नम रहे, चेहरे पर मुस्कराहट बराबर बनी रहे और आप बड़ी तसल्ली से तकरीबन सौ मिनट की इस फिल्म का पूरा लुत्फ़ लें.
अभिनय में नसीर साब और कल्कि एक दूसरे को पूरी तरह कम्पलीट और कॉम्प्लीमेंट करते नज़र आते हैं. नसीर साब के साथ एक ख़ास सीन में, जहां दोनों एक-दूसरे पर बरबस बरस रहे होते हैं, कल्कि अपनी एक अलग छाप छोड़ने में सफल रहती हैं. नसीर साब के तो कहने ही क्या! मतलबी से दिखने वाले डॉक्टर की भूमिका में रजत कपूर, बनावटी दोस्त की भूमिका में रत्नाबली भट्टाचार्जी और बेबाक, दो-टूक सहकर्मी बने राजीव रविन्द्रनाथन जंचते हैं.
सिनेमा बदल रहा है. सिनेमा से ‘अति’ विलुप्त होता जा रहा है. अनु मेनन की ‘वेटिंग’ भी इसी अहम् बदलाव का एक हिस्सा है. (इस तरह की) फिल्मों में नाटकीयता के लिए अब शायद ही कहीं कोई जगह बची है. कथानक से अब बेमतलब के ज़ज्बाती रंग हटने लगे हैं. जिसे जो कहना है, उसी लहजे से कह रहा है जिसमें उस किरदार की पैठ हो. तैयार रहिये, कई बार ये आपको विचलित भी कर सकता है.
Written By: Gaurav Rai