पंजाब के लुधियाना शहर मे जन्में राज खोसला का बचपन से ही रूझान गीत संगीत की ओर था। वह फिल्मी दुनिया में पार्श्वगायक बनना चाहते थे। आकाशवाणी में बतौर उद्घोषक और पार्श्वगायक का काम करने के बाद राजखोसला 19 वर्ष की उम्र में पार्श्वगायकी की तमन्ना लिए मुबई आ गए।Raj Khosla_राज_खोसला_Director_Bollywood_Hindi Cinema_Article_Rare Image_Vintage_Bollywoodirect

मुंबई आने के बाद राज खोसला ने रंजीत स्टूडियों में अपना स्वर परीक्षण कराया और इस कसौटी पर वह खरे भी उतरे लेकिन रंजीत स्टूडियों के मालिक सरदार चंदू लाल ने उन्हें बतौर पार्श्वगायक अपनी फिल्म में काम करने का मौका नहीं दिया। उन दिनों रंजीत स्टूडियो की स्थिती ठीक नही थी और सरदार चंदूलाल को नए पार्श्वगायक की अपेक्षा मुकेश पर ज्यादा भरोसा था अतः उन्होंने अपनी फिल्म में मुकेश को ही पार्श्वगायन करने का मौका देना उचित समझा।

1948 के लगभग चेतन आनंद, देवानंद और विजय आनंद पाली हिल में एक साथ रहने लगे थे जल्द ही राज खोसला भी इसी परिवार के साथ रहने लगे उनका चेतन आनंद की पत्नी उमा आनंद से बेहद स्नेह था। इस बीच राजखोसला फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। उन्ही दिनों उनके पारिवारिक मित्र और अभिनेता देवानंद ने राज खोसला को अपनी फिल्म (बाजी) में गुरूदत्त के सहायक निर्देशक के तौर पर नियुक्त कर लिया। वर्ष 1954 में राज खोसला को स्वतंत्र निर्देशक के तौर पर फिल्म मिलाप को निर्देशित करने का मौका मिला। देवानंद और गीताबाली अभिनीत फिल्म मिलाप की सफलताके बाद बतौर निर्देशक राज खोसला फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गए।

वर्ष 1956 में राजखोसला ने सी.आई.डी फिल्म निर्देशित की। जब फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर अपनी सिल्वर जुबली पूरी की तब गुरूदत्तइससे काफी खुश हुए। उन्होंने राज खोसला को एक नई कार भेंट की और कहा कि यह कार आपकी है, इसमें दिलचस्प बात यह है कि गुरूदत्त ने कार के सारे कागजात भी राज खोसला के नाम से ही बनवाए थे।

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विजय आनंद मधुबाला और राज खोसला फिल्म बम्बई का बाबू के सेट पर। इस फिल्म में पहले सुचित्रा सेन की जगह मधुबाला को लिया गया था ।

सी.आई.डी की सफलता के बाद गुरूदत्त ने राज खोसला को अपनी एक अन्य फिल्म के निर्देशन की भी जिम्मेवारी सौंपनी चाही लेकिन राजखोसला ने उन्हें यह कह कर इंकार कर दिया कि एक बड़े पेड़ के नीच भला दूसरा पेड़ कैसे पनप सकता है। इस पर गुरूदत्त ने राजखोसला से कहा कि गुरूदत्त फिल्मस पर जितना मेरा अधिकार है उतना तुम्हारा भी है।
वर्ष 1960 में राज खोसला ने निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रख दिया और बंबई का बाबू का निर्माण किया। फिल्म के जरिए राज खोसला ने अभिनेत्री सुचित्रा सेन को रूपहले पर्दे पर पेश किया। हांलाकि फिल्म दर्शको के बीच सराही गई लेकिन बॉक्स ऑफिस पर इसे अपेक्षित कामयाबी नही मिल पाई।फिल्म की असफलता से राज खोसला आर्थिक तंगी में फंस गए।नायक-नायिका के भाई-बहन दिखाए जाने को दर्शकों ने स्वीकार नहीं किया और फिल्म चली नहीं।

रहस्य भरी फिल्मों में राज खोसला की खास दिलचस्पी थीं। उन दिनों गुरुदत्त वहीदा रहमान को डबल रोल में ले कर एक फ़िल्म बना रहे थे ‘राज़’ वह फ़िल्म चार – पाँच रील बनने के बाद बन्द कर दी गई क्योंकि गुरुदत्त उसकी प्रगति से संतुष्ट नहीं थे । गुरुदत्त ने ‘ राज़ ‘ के लिये संगीतकार के रूप में पंचम याने राहुलदेव बर्मन को साइन किया था जो उस समय मात्र 18 वर्ष के थे ‘राज़’ के लिये दो गीत रिकार्ड किये गये थे । पहला तीन महिला गायिकाओं के स्वर में – गीतादत्त , शमशाद बेग़म और आशा भोंसले की आवाज़ों में तथा दूसरा हेमन्त कुमार और गीतादत्त की आवाज़ों में था राज खोसला उस समय गुरुदत्त के सहायक थे । बाद में राज खोसला ने उस कहानी पर साधना को नायिका ले कर ‘वह कौन थी’ फ़िल्म का निर्माण किया। 1964 में राज खोसला की वह कौन थी’ सुपरहिट हुई फिल्म के निर्माण के समय मनोज कुमार और अभिनेत्री के रूप में निम्मी का चयन किया गया था लेकिन राज खोसला ने निम्मी की जगह साधना का चयन किया। रहस्य और रोमांच सेभरपूर इस फिल्म में साधना की रहस्यमई मुस्कान के दर्शक दीवाने हो गए। साथ ही फिल्म की सफलता के बाद राज खोसला का निर्णय सही साबित हुआ। इस फिल्म के प्रीमियर पर ख्याति प्राप्त निर्माता महबूब ने बधाई देते हुए कहा कि तू तो हिचकॉक का भी बाप निकला।

इनकी फिल्में आज भी वहीं क्रेज, सस्पेंस, थ्रिलर, मनोरंजन की गारंटी रखती है, साथ ही संगीत की सुर लहरियों में आपको ऐसे फांसती है कि सारा समय आप इन्हीं फिल्मों के गीतों को गुनगुनाने का सम्मोहन ब-मुश्किल छोड़ पाते हैं। राज खोसला का फिल्मों की लोकप्रियता का रसायन उनकी फिल्मों का साफ सुथरापन रहा। रहस्य रोमांच के बीच मधुर गीत संगीत का तड़का यही उनकी फिल्मों की असली पूंजी थीं। राज खोसला की फिल्मों पर अगर आप नजर दौड़ाए तो पाएंगे कि उनकी फिल्मों का संगीत बेहद कर्णप्रिय था। राज खोसला के जीवन में देवानंद और गुरुदत्त की तरह ही दिल्ली की एक युवती आई. जिससे विवाह करने के बाद उनके जीवन में भूचाल आ गया। अपने जीवन के इस अनुभव को राज खोसला ने फिल्म मैं तुलसी तेरे आंगन की में अभिव्यक्त किया था। नूतन और आशा पारेख के साथ विजय आनंद ने इस फिल्म में यादगार अभिनय किया था। नकाब (1989 ) में उनकी आखरी फिल्म साबित हुई।

राज ख्रोसला 9 जून 1991 को चल बसे।

साभार:- पवन मेहरा

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