Rating 4/5
Directed by Avinash Arun
Written by Tushar Paranjape
Starring Archit Deodhar, Parth Bhalerao, Gaurish Gawade, Atharva Upasni
Music by Naren Chandavakar, Benedict Taylor
Cinematography Avinash Arun
Edited by Charu Shri Roy
Distributed by AR Pictures
Release dates 26 June 2015
Running time 107 minutes
Language Marathi
उम्र का कोई निश्चित पड़ाव हो जहां पहुँच कर लगे कि अब आप बड़े हो गए हैं, ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता! हालाँकि १८ साल की उम्र संवैधानिक रूप से आपको बालिग बना सकती है पर सच तो यह है कि ज़िंदगी ने हम सभी के लिए एक अलग चक्रव्यूह की रूपरेखा पहले ही सोच रखी है। कभी-कभी बारिश की चार औसत सी दिखने वाली बूँदें भी आपकी बेजान-बंजर रूह तर कर जाती है, तो कभी सरकंडे की आग पर भुनी मछली का पहला अधपका सा स्वाद ही काफी होता है आपको उम्र के उस दूसरी तरफ ठेलने के लिए! अविनाश अरुण की ‘किल्ला’ हम सभी ‘बड़े हो चुके’ बच्चों को किसी बहुत चमकदार तो नहीं पर असरदार टाइम-मशीन की तरह हमारे उस ‘एक साल’ में ले जा छोड़ती है, जिसकी धुंधली सी याद अब भी जेहन में किसी ढीठ किरायेदार की तरह जम के बैठी है।
११ साल के चिन्मय [अर्चित देवधर] के लिए कुछ भी आसान नहीं है. पिता को खोने का खालीपन बचपन को कुरेद-कुरेद कर खा ही रहा था कि अब माँ [अमृता सुभाष] के तबादले से उपजी नयी अजनबी-अनजान जगह की खीज़। चाहते न चाहते हुए भी चीनू को दोस्तों की एक दुकान मिल ही जाती है, उसके नए स्कूल में। बीच की बेंच पर बैठने वाला वो मस्तमौला-घुड़कीबाज़-शरारती बंड्या [पार्थ भालेराव], सबसे पीछे बाप के पैसों से सजा-सजाया युवराज और एक-दो ‘हर बात में साथ’ साथी। कोई याद आया? एक पुराना सा सीलन लिए नाम तो जरूर कौंधा होगा, आखिर हम सब हैं तो एक ही मिट्टी की पैदावार।
‘किल्ला’ एक मासूम, पर उदास मन की संवेदनाओं का सहेजने योग्य दस्तावेज़ है। नए परिवेश से जुड़ने की मजबूरी और न जुड़ पाने की कसक चिन्मय के रवैये में जिस तरह नज़र आती है, खुद को टूटने से रोक पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है। माँ की भी अपनी उलझनें कुछ कम नहीं हैं। नौकरी में बड़ी कुर्सियों पर बैठे लोगों के दबाव और अकेलेपन की कचोट के बीच पिसती अरुणा फिर भी अपनी पनीली आँखों में काफी कुछ बाँधे रखती है। दीवार पर गालियां लिखने और समंदर से केकड़े पकड़ कर बाजार में बेचने की शरारतों के बीच चिन्मय का अकेले पड़ जाने का डर तब खुलकर सामने आता है, जब मूसलाधार बारिश के बीच उसके दोस्त उसे एक भयानक से दिखने वाले सुनसान किले में अकेला छोड़ आते हैं। ‘किल्ला’ को ‘किल्ला’ होने की ऊपरी वजह शायद तभी मिलती है पर यह फिल्म उससे कहीं बढ़कर है. फिल्म खत्म होने से पहले कई बार अपना अंत तलाशती नज़र आती है, और अंत में जब खत्म होती है तो एक नयी शुरुआत की उम्मीद के साथ!
‘किल्ला’ मेरे लिए किरदारों से ज्यादा लम्हों की फिल्म है. छोटी-छोटी झलकियों में सिमटती-आसमान में खुलती खिड़कियों से झांकती एक बड़ी फिल्म। एक हलकी सी मुस्कान, एकटक तकती आँखों का रूखापन, लहरों के थपेड़े सहती एक बंद मोटरबोट, बारिश में दीवार से लगी एक साईकिल, एक भिगो देने वाला ‘सॉरी’ और पीछे छूटता बचपन, जो शायद ही कभी छूटता हो! अमृता सुभाष बेहतरीन हैं. अर्चित देवधर चिन्मय की बारीकियों को परदे पे एक सधे हुए अदाकार की तरह बखूबी उकेरते हैं. पार्थ भालेराव को ‘भूतनाथ रिटर्न्स’ में आप पहले भी देख चुके हैं, ‘किल्ला’ में एक बार फिर वो आपको गुदगुदा कर लोटपोट कर देंगे।
‘साल की सबसे अच्छी मराठी फिल्म’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार का तमगा लिए, अविनाश अरुण की ‘किल्ला’ ज़िंदगी की किताब का वो पन्ना है जिसे आप बार-बार पढ़ना चाहेंगे। वो भूली हुई डायरी, जो आज भी हाथ लग जाए तो आप सब कुछ छोड़-छाड़ के बैठ जाएंगे, उसके कुछ किरदारों से दुबारा उसी गर्मजोशी से मिलने के लिए! जरूर देखिये, सिनेमा के लिए-दोस्ती के लिए-ज़िंदगी के लिए!
Review Written By- Gaurav Rai
https://www.youtube.com/watch?v=5ORlbsJLJuQ