गीत – ये रात ये फ़िज़ायें फिर आयें या न आयें
आओ शमा बुझा के हम आज दिल जलायें
फ़िल्म – बटवारा (1961)
संगीतकार – एस मदन
गीतकार – मजरूह सुल्तानपुरी
गायक – मोहम्मद रफी, आशा भोंसले

‘मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर
लोग साथ आते गये और कारवाँ बनता गया’

यह मशहूर शेर जनाब मजरूह सुल्तानपुरी साहब का लिखा हुआ है। वे ‘प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट’ के सक्रिय कार्यकर्ता थे और अपनी वामपंथी विचारधारा के कारण सरकार की नज़रों में खटकते रहते थे। उनकी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लिखी गयीं नज़्मों और ग़ज़लों के कारण उन्हें बड़ी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी। 1949 में उन्हें जेल भेज दिया गया था। उनसे कहा गया कि वे अपनी रचनाओं के लिये माफ़ी माँग लें तो उनकी सज़ा माफ़ की जा सकती है, पर उन्होंने इंकार कर दिया था। उन दिनों बलराज साहनी को भी वामपंथी विचारधारा का खुला समर्थन करने पर जेल भेजा गया था।

मजरूह सुल्तानपुरी के फ़िल्मी गीतों के बोलों पर भी सेंसर बोर्ड की कड़ी नज़र रहती थी। यह ध्यान रखा जाता था कि कीं वे लोगों को भड़काने वाली बातें तो नहीं लिख रहे हैं। इस निगरानी की वजह से उनके सीधे सादे बोलों में भी गूढ़ मतलब निकाल कर उन्हें बदलने के लिये मजबूर किया जाता था।
एक उदाहरण फ़िल्म – ‘बटवारा’ (1961) के गीत का है। इस फ़िल्म के मुख्य सितारे प्रदीप कुमार, निरूपाराय, बलराज साहनी, शशिकला, जवाहर कौल, ज़बीन जलील आदि थे। संगीतकार एक कम चर्चित नाम वाले थे – एस मदन। डोरिस डे के प्रसिद्ध अंग्रेज़ी गीत -‘के सेरा सेरा, व्हाटेव्हर विल बी, विल बी’ की धुन पर मजरूह सुल्तानपुरी से एक गीत लिखवाया गया था- ये रात ये फ़िज़ायें, फिर आयें या न आयें, आओ शमा बुझा कर, हम आज दिल जलायें
इसमें ‘शमा बुझा कर दिल जलाने‘ वाली बात सेंसर को पसंद नहीं आई। उन्हें लगा कि जनसाधारण को दिल जला कर विद्रोह करने के लिये प्रेरित किया जा रहा है। इस आपत्ति के कारण गीत की दूसरी पंक्ति बदल कर यूँ करनी पड़ी –  ‘आओ शमा जला के हम आज मिल के गायें ‘
कुछ परिवर्तन गीत के अंतरों में भी करने पड़े। जैसे –

ये नर्म सी ख़ामोशी, ये रेशमी अंधेरा
कहता है ज़ुल्फ़ खोलो, रुक जायेगा सबेरा
बदल कर यूँ हो गया-
ये नर्म सी ख़ामोशी, ये रेशमी अंधेरा
कहता है कुछ न बोलो, रुक जायेगा सबेरा
दूसरे अंतरे में –
भीगी हुई हवायें अब रात ढल रही है
ऐसे में दो दिलों की इक शम्मा जल रही है
दूसरी लाइन बदल कर यूँ करनी पड़ी –
ऐसे में दूर झिलमिल इक शम्मा जल रही है

इस सारी कसरत के चलते गीत का सौन्दर्य कुछ घट गया। मोहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले के गाये इस गीत को पर्दे पर जवाहर कौल और ज़बीन जलील पर फ़िल्माया गया था। बाज़ार में जो रिकार्ड आये और जो गीत रेडियो (विशेषतः रेडियो सीलोन) पर बजा वह मूल पंक्तियों वाला ही था – ‘आओ शमा बुझा के हम आज दिल जलायें’ लेकिन सेंसर से पास कराने के लिये फ़िल्म में जो गीत आया – ‘आओ शमा जला के हम आज मिल के गायें’।

साभार:- श्री रवींद्रनाथ श्रीवास्तव जी।

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