‘कह गए स्याणे सोच साच कै 

सहज पके तो आवै स्वाद 

इश्क पकाया है मंदे आंच पे

बहुत पके तो हो बर्बाद

लाल रंग फिल्म के बावलीबूच गाने का ये अन्तरा शायद गीतकार दुष्यंत का परिचय देने का सही प्रयास होगा। हरियाणवी लहजे में लिखा ये हिंदी गाना इतनी सरलता से Dush yant_lyricist_poet_Laal Rang_BAWLI BOOCH_Bollywoodirect _Songलिखा गया है कि हर सुनने वाले के कान में शहद घोल दे। ये दुष्यंत का पहला फ़िल्मी गाना है। वे एक लेखक हैं, इतिहासकार हैं, कवि हैं, पत्रकार हैं और अब गीतकार भी. पांच किताबो के रचयिता दुष्यंत की सबसे ताज़ा किताब ‘जुलाई की एक रात’ पेंगुइन नें छापी थी जिसे बहुत सराहना मिली। लेखन के लगभग सभी आयामों को छू लेने वाले दुष्यंत ने हमें बताया कि सफ़र अभी शुरू हुआ है और आने वाले दिनों में वो हमें ऐसे ही कई गीतों से दीवाना बनाएँगे.

अपने सफ़र के बारे में बताइए। बहुत लम्बा रहा होगा?

यात्रा तो लंबी है.. उम्र कम है, लिखने का सफर उसके अनुपात में अविश्वसनीय ढंग से बड़ा है, बीस साल की बेहद उबड़- खाबड़ पगडंडियां हैं.. कुलमिलाकर पेशे और शौक की दूरियां कम करने की जद्दोजहद को ही जीते हुए लेखक के रूप में बहुत फॉर्म एक्सप्लोर किए…कविता, कहानी, ग़ज़ल, अखबारी लेखन,अनुवाद, संपादन आदि.. और यह गीत लिखना भी उसी एक्सप्लोरेशन का एक मीठा, सुरीला पड़ाव है.. बॉलीवुड संगीत से पहला जुड़ाव गैंग्स ऑफ वासेपुर फेम संगीतकार स्नेहा खानवलकर से हुआ, जिसका श्रेय फिल्म डायरेक्टर प्रवेश भारद्वाज को है, इस संयोग से जो गीत लिखा- बना : सजना वारी वारी जाऊं” , वह एमटीवी के “साउंड ट्रिपिंन” शो के सबसे लोकप्रिय गीतों मे से एक बना।

बावलीबूच’ गाने का जन्म कैसे हुआ? कैसे बना ये गाना और आपको कैसे चुना गया इसे लिखने के लिए? 

इसका पूरा क्रेडिट डायरेक्टर सैयद अहमद अफजाल को ही है, स्क्रिप्ट के हिस्से के रूप में उन्होने इसकी परिकल्पना की, मैंने उनके खयाल को (पेरिस निवासी जीनियस संगीतकार मथायस डुप्लेसी की अाउट ऑफ द वर्ल्डसंगीत रचना पर ) पोएटिक शब्द दिए। इस प्रक्रिया में कई वर्जन लिखे, उसी में यह रूप निकल कर आया। जितना अच्छा गीत बना है, वह अफजाल साहब की पोएटिक समझ से बना है,जितना पोएटिक होने की इजाजत उन्होंने मुझे दी, सचमुच हमारे समय के हिंदी सिनेमा में दुर्लभ है, क्योंकि इतनी पोएटिक समझ वाले निर्देशक भी अब विरले ही हैं।

जब मैं जयपुर रहता था, यंगिस्तान” के समय से अफजाल साहब से फेसबुक संवाद था, फिर जब मुंबई में रहना शुरू किया, एक बर्थडे पार्टी में अजय ब्रह्मात्मज और अविनाश दास के साथ जाना हुआ, तो पहली बार उन्हें देखा, पर बात नहीं हुई, कुछ दिन बाद जब मैं अपने एक निर्देशक मित्र से मिलकर यारी रोड़ से वर्सोवा मेट्रो स्टेशन की ओर चहलकदमी करते हुए बढ़ रहा था, तो अफजाल साहब को सड़क किनारे खड़ा पाया और जाकर बात कर ली, मकसद केवल उनकी पिछली फिल्म के गीत “सुनो न संगेमरमर “ की प्रशंसा करना था। उस रात का हवाला दिया, उन्हें हमारा फेसबुक संवाद याद था, मुझसे पूछा -क्या करते हैं आप? मैंने कहा- लेखक हूं, लिखता हूं, अभी गीत पर सीटिंग से लौट रहा हूं, तो उन्होने तुरंत पलट के पूछा- धुन पर लिख लेते हो?

मैंने हां कहा, तो राजस्थानी होने के नाते हरियाणवी जानने के बारे में पूछा, मैंने कहा, मेरा ननिहाल हरियाणा में है और इतनी हरियाणवी आती है कि बॉलीवुड का गीत लिख सकूं। खड़े – खड़े इतनी बात हुई, बोले – “आप ऐसा करो कल ऑफिस आ जाओ.. ” इस तरह इस गीत की नींव पड़ गई, मुझे कई बार लगता है कि उस दिन यारी रोड़- वर्सोवा के नुक्कड़ पर अफजाल साहब इत्तेफाकन नहीं मिलते तो कैसे “बावलीबूच” का जन्म होता !

Dush yant_lyricist_poet_Laal Rang_BAWLI BOOCH_Bollywoodirect _Songआप हिस्ट्री में पी एच डी है। क्या आपको लगता है कि लेखको का एक बहुत ही पढ़े लिखे बैकग्राउंड से होना भी ज़रूरी है?

जरूरी तो नहीं है, लेखक के लिए दुनिया और जीवन को समझने के कई रास्ते हैं, औपचारिक या अनौपचारिक पढाई उनमें से एक है, इनसान के अनुभव का संसार सीमित होता है, विविध अध्ययन उसे विस्तार देता है। इतिहास के अध्ययन ने दुनिया और जीवन को लेकर मेरी समझ को बहुत बढ़ाया है।

फिल्मो में आने का एक रास्ता पत्रकारिता भी हो सकता है. इस बात से कितने सहमत है?

पहली बात, पत्रकारिता इनसान के डायरेक्ट अनुभव को जितना बढाती है, शायद ही कोई और पेशा बढाता हो। रास्ता यकीनन हो सकता है, क्योंकि पत्रकारिता पब्लिक डीलिंग सिखाती है और एक्सेस भी देती है।

आने वाले समय में कोई और गाना सुनने को मिलेगा आपका लिखा हुआ? या फिर कोई स्क्रिप्ट पर काम कर रहे है?

बावलीबूच” मेरा पहला रिलीज्ड हिंदी सिनेमाई सॉन्ग है, इससे पहले के गीत इत्तेफाकन इसके बाद आ रहे हैं। अलग किस्म के गीत लगातार लिख रहा हूं, यह दावा नहीं, कोशिश है. इंशाल्लाह, मेरी कुछ दिलचस्प कहानियां पर्दे पर दिखेंगी जल्दी ही।

ये वो वक्त है जब लेखको की बाढ़ आई हुई है हमारी फिल्म इंडस्ट्री में। आपको लगता है कि लड़ाई बढ़ गयी है आगे निकलने की या फिर ये बहुत अच्छा समय है जहाँ सबको काम मिल रहा है?

मुझे लगता है, प्रतिस्पर्धा तो हर युग में रही होगी, बेशक हमारे समय मे अवसर अधिक हैं, पर मेरी राय है कि इसी वजह से शायद संख्यात्मक लिहाज से एक साथ इतने खूब सारे अच्छे गीतकार हिंदी सिनेमा के इतिहास में कभी नहीं रहे होंगे. जितने अभी हैं।

आपका नाम कुछ दिनों पहले काफी चर्चा में था। कवि दुष्यंत कुमार के नाम सिमिलैरिटी होने के कारण शायद। कुछ बोलना चाहेंगे?

सच में नाम में बहुत कुछ रखा है, मेरे नाम की दास्तां ऐसी है कि समय के साथ मैं शेक्सपियर बाबा से घोर असहमत हूं। “दुष्यंत कुमार” हिंदी के लिजेंडरी पोएट रहे हैं, मुझे उनके नाम का फायदा मिलता रहा है। पर हकीकतन जीवनभर उनकी पहचान से मुझे लड़ना पड़ेगा, और मैंने यह चुनौती स्वीकार की है। गलती से गीत के यूट्यूब लिंक पर गीतकार का क्रेडिट “दुष्यंत कुमार” चला गया, हालांकि चूक जानकारी में आते ही लाल रंग प्रोडक्शन टीम ने इसे दुरूस्त करने की कोशिशें शुरू कर दीं।

 

Interview By: Shubham Pandey

 

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