कभी ज़हानत पर शक़ न था उनके, कभी ख़य्याम न रहे, किसी जानिब जाने की बेक़रारी न थी, बस एक रोज़ जाना मुकर्रर था, सो चल दिए, न गुज़ारिश की, न इजाज़त मांगी, न इत्तला किया, बस चल दिए| इरफ़ान ऐसे ही फिर से फ़ानी बताकर इस दुनिया को, गुज़र गए|

दूरदर्शन पर एक टेलीफ़िल्म आई थी, “लाल घास पर नीले घोड़े”, उसी में पहली बार देखा था इरफ़ान को| लेनिन बने थे इरफ़ान| तब इतनी समझ नहीं थी कि अदाकारी पर कोई बात हो सके, पर वो किरदार, चस्पा हो गया दिल पर कहीं| इसी दौर में फिर से एक बार, “भारत एक खोज” में इरफ़ान दिखे और इस बार अलग लिबास और अंदाज़ में| सब फिर भी इन्हें, लेनिन ही कहते रहे| 1990 में आई फ़िल्म, “एक डॉक्टर की मौत” से इन्हें “अमूल्या” नाम से जानते रहे लोग| जब, जिस रूप में दिखे इरफ़ान, तब उसी नाम से जुड़ गए और ये कमाल था उनकी अदाकारी का| किसी के गुज़र चुके बचपन की कहानियों का अय्यार, किसी की ज़िदगी में रूहदार, किसी के लिए शायर मख़दूम तो किसी के लिए बीहड़ का बाग़ी| इन सब चेहरों का एक ही नाम था और रहेगा, इरफ़ान|

“हाल के ही एक इंटरव्यू में जब तिग्मांशु धूलिया से पूछा गया कि उनकी नज़र में सबसे बेहतरीन ऐक्टर कौन है, तो बिना झिझक, एक ही बार में, उन्होंने, इरफ़ान का नाम लिया|”

ऐसे ही जब एक पत्रकार ने वास्तविक पान सिंह तोमर के बेटे से पूछा कि उनके पिता और इरफ़ान द्वारा निभाए गए उनके पिता के किरदार में, कितनी समानता या असमानता है, तो उन्होंने बहुत दिलचस्प बात कही, “लंबाई और शक्ल छोड़कर, सब कुछ समान था”|

जब अंग्रेज़ी पढ़ने और पढ़ाने वाले लोगों ने इरफ़ान को “मक़बूल” और “हैदर” में “रूहदार” के किरदार में देखा तब उन्हें “मैकबेथ़” और “हैमलेट” का “ऐपेरिशन” बेहतर समझ आया| इरफ़ान ने हर किरदार को जी कर दिखाया और शामिल रहे सब की ज़िंदगी में|

मनोज वाजपेयी, पंकज त्रिपाठी और नवाज़ुद्दीन के ज़्यादातर किरदार, बिहार और उत्तर प्रदेश के कथानकों पर आधारित फ़िल्मों में हैं और ये सारे अदाकार उसी क्षेत्र विशेष के ही रहने वाले भी हैं| इरफ़ान का कोई वास्ता इन जगहों से नहीं रहा था, लेकिन जब वे किरदार निभाते थे तो कोई ये कह नहीं सकता था|

माह-ए-रमज़ान है और इरफ़ान! हम यही कह सकते हैं:

“इन्ना लिल्लाही वा इन्ना इलायही रजी’उन”

बहुत याद आओगे रूहदार|

 

डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह

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