गीत – हम हैं मता-ए-कूचा ओ बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह
फ़िल्म – दस्तक (1970)
संगीतकार – मदन मोहन
गीतकार – मजरूह सुल्तानपुरी
गायिका – लता मंगेशकर

प्रसिद्ध लेखक राजेन्द्र सिंह बेदी ने अपनी लिखी कहानी पर फ़िल्म ‘ दस्तक ‘ (1970) बनाई थी । निर्देशन भी उनका स्वयं का था । इस फ़िल्म के कलाकार थे – संजीव कुमार , रेहाना सुल्तान , शकीला बानो भोपाली , अनवर हुसैन , कमल कपूर , मनमोहन कृष्ण , जानी व्हिस्की और अंजू महेन्द्रू । प्रसंगवश बता दें कि अंजू महेन्द्रू फ़िल्म के संगीतकार मदन मोहन की बहन शांति महेन्द्रू की पुत्री हैं । क्रिकेट खिलाड़ी गैरी सोबर्स और राजेश खन्ना के कारण जिनका नाम बहुत चर्चा में रहा । रेहाना सुल्तान ने पूना फ़िल्म इंस्टीट्यूट से अभिनय का कोर्स किया था तथा ‘ दस्तक ‘ उनकी पहली फ़िल्म थी । पहली ही फ़िल्म में उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला जो उस समय ‘उर्वशी ‘ पुरस्कार कहा जाता था । साथ ही सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ‘ भरत ‘ पुरस्कार संजीव कुमार को और सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार मदन मोहन को इस फ़िल्म के लिये मिला था ।

फ़िल्म की रिलीज़ के समय केवल चार गानों की एक ई पी रिलीज़ की गयी थी – हम हैं मता-ए-कूचा ओ बाज़ार की तरह , माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की , बैंया न धरो ओ बलमा और तुमसे कहूँ इक बात परों से हल्की । इन गानों के अलावा बैकग्राउण्ड में मदन मोहन ने लता मंगेशकर और शोभा गुर्टू के गाये कुछ बड़े प्यारे गीत उपयोग में लिये थे । मदन मोहन के देहान्त के बाद उनकी आवाज़ में ‘ माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की ‘ गीत भी बाज़ार में रिलीज़ किया गया । यह वर्शन फ़िल्म में नहीं था । लता मंगेशकर के अस्वस्थ होने के कारण मदन मोहन ने फ़िल्म की शूटिंग के समय अपनी आवाज़ में रिकार्ड कर दे दिया था । बाद में जिसे लता जी की आवाज़ में डब कर लिया गया था ।

मजरूह सुल्तानपुरी ने एक इंटरव्यू में कहा था ,’ मदन मोहन से अच्छी ग़ज़ल बनाने वाला कोई नहीं हुआ । ग़ज़ल में जो रोमांस होना चाहिये वो हमेशा उन्होंने दिया।‘ ‘हम हैं मता-ए-कूचा ओ बाज़ार की तरह ‘ ग़ज़ल मजरूह साहब ने ख़ास ‘ दस्तक ‘ फ़िल्म के लिये नहीं लिखी थी ।उनकी एक पुस्तक में प्रकाशित ग़ज़ल के तीन शेर राजेन्द्र सिंह बेदी को पसंद आ गये और फ़िल्म की कहानी के लिये उपयुक्त लगे । उन्होंने वे शेर इस गाने में ले लिये । उस ग़ज़ल के तीन अन्य शेर जो फ़िल्म में नहीं लिये गये वे इस तरह हैं —

इस कू-ए-तिश्नगी में बहुत है एक ही जाम
हाथ आ गया है दौलते बेदार की तरह

सीधी है राहे शौक पर यूँ ही कभी कभी
ख़म हो गयी है गेसू-ए-दिलदार की तरह

अब जा के कुछ खुला हुनर – ए- नाख़ून -ए-जुनून
ज़ख्मे जिगर हुये लबो रुखसार की तरह

साभार:- श्री रवींद्रनाथ श्रीवास्तव जी।

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