गीत – सारंगा तेरी याद में नैन हुये बेचैन
फ़िल्म – सारंगा (1961)
संगीतकार – सरदार मलिक
गीतकार – भरत व्यास
गायक – मुकेश/मोहम्मद रफी

संगीतकार सरदार मलिक (अनु मलिक के पिता) ने उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब (मैहर वाले बाबा) से संगीत की तालीम पायी थी। कपूरथला के महाराजा की तरफ़ से मिली स्कालरशिप की बदौलत वे पंडित उदय शंकर के ‘इंडिया कल्चर सेण्टर’ में जो अल्मोड़ा में स्थित था, डाँस सीखने जा सके। अल्मोड़ा के उस सेण्टर में वे तथा गुरुदत्त एक ही कमरे में पाँच साल तक साथ रहे। गुरुदत्त को पढ़ने का बेहद शौक़ था और सरदार मलिक को गाने और नाचने का। सरदार मलिक रात में संगीत बजा कर नाच का अभ्यास करते तो गुरुदत्त शांति से पढ़ नहीं पाते थे। दोनों ने समझौता किया कि सरदार मलिक एक दिन छोड़ कर अभ्यास किया करेंगे ताकि गुरुदत्त आराम से पढ़ाई कर सकें। गुरुदत्त भी अल्मोड़ा डाँस सीखने आये थे। उस सेण्टर में एक बार शैडो प्ले हुआ था जिसमें गुरुदत्त राम बने थे। पंडित उदय शंकर ने उन दिनों ही भविष्यवाणी कर दी थी कि गुरुदत्त बहुत बड़े काम करेगा। उन्होंने सरदार मलिक से कहा था कि तुम आलसी हो इस कारण तुम्हारी क़िस्मत देर से जागेगी। एक बार पंडित नेहरू उस सेण्टर में आ कर रुके थे। उनके साथ उनकी दो भतीजियों तारा पंडित और रीटा पंडित भी आईं थीं। पंडित नेहरू के स्नान के लिये सुबह कुयें से पानी भर कर लाने का काम पंडित उदय शंकर ने सरदार मलिक को सौंपा था। सरदार मलिक के आलस को दूर करने का उन्हें यह सही उपाय लगा होगा।

बम्बई आ कर सरदार मलिक ने पहले मोहन सहगल के साथ मिल कर फ़िल्मों में नृत्य निर्देशन शुरू किया। नानाभाई भट्ट (महेश भट्ट के पिता) की फ़िल्म ‘चालीस करोड़‘ में उन्होंने एक कठपुतली डाँस कम्पोज़ किया था जो बड़ा सराहा गया। कुछ फ़िल्मों में गायन भी किया अन्त में संगीतकार के रूप में स्थापित हुये। उनके संगीतबद्ध कुछ मशहूर गाने हैं- मैं ग़रीबों का दिल हूँ वतन की जबां (आबे हयात), अय ग़मेदिल क्या करूँ (ठोकर), हाँ दीवाना हूँ मैं (सारंगा), बहारों की दुनिया पुकारे तू आ जा (लैला मजनू), बहारों से पूछो (मेरा घर मेरे बच्चे), मुझे तुमसे मोहब्बत है (बचपन) वग़ैरह। एक ऊँचे दर्जे के संगीतकार होने के बावज़ूद उन्हें सिने संसार में सही स्थान और सम्मान नहीं मिला।

सरदार मलिक के संगीत से सजी फ़िल्म ‘सारंगा’ (1961, सुदेश कुमार, जयश्री गड़कर) के सभी गाने बड़े मशहूर हुये। उस फ़िल्म का टाइटिल सांग एक टैण्डम सांग भी था। मुख्य गीत मुकेश की आवाज़ में था और स्लो वर्शन मोहम्मद रफ़ी ने गाया था। मुकेश एक महीने तक हर रोज़ दो घण्टे सरदार मलिक के घर जा कर संगीत के गुर सीखते रहे। रिकार्डिंग के समय इस गीत का पच्चीसवां टेक जा कर ओके हुआ। आख़री टेक के बाद भी मुकेश ने सरदार मलिक से मुस्कुरा कर पूछा था,’कोई कसर तो बाक़ी नहीं?’

सरदार मलिक ने मुकेश की सादगी के बारे में कहा था कि मुकेश सर से पैर तक पसीना पसीना हो रहे थे फिर भी मुस्कुरा कर पूछ रहे थे,’आपको पसंद आया?’
सरदार मलिक ने हंस कर जवाब दिया था,’ एकदम परफ़ेक्ट रिकार्ड हुआ है। कोई संगीत का गुणी भी इसमें कोई ग़लती नहीं निकाल सकता है।’

सारंगा तेरी याद में नैन हुये बेचैन
मधुर तुम्हारे मिलन बिना
दिन कटते नहीं रैन।

साभार:- श्री रवींद्रनाथ श्रीवास्तव जी।

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